पारीक समाज के आदि पुरुष, वंश प्रवर्तक भगवान पराशर हैं। सतयुगीन आश्विन शुक्ल पूर्णिमा अर्थात शरदपूर्णिमा को भगवान पराशर का अविर्भाव हुआ। इनके पिता का नाम महर्षि शक्ति तथा माता का नाम देवी अदृश्यन्ती था। आचार्य सायण माधव ने अपने प्रसिद्ध माघवीय धातुवृति के क्रयादिगण के 16वें सूत्र में बताया है "पराश्रणाति पापातीति पराशर:" अर्थात जो दर्शन स्मरण करने मात्र से ही समस्त पाप-ताप को छिन्न-भिन्न कर देते हैं वे ही पराशर हैं। इस प्रकार पराशर नाम का स्मरण करने मात्र से ही व्यक्ति पवित्र हो जाता है। कितना पवित्र नाम है 'पराशर'। इतनी ही पवित्र है, भगवान पराशर प्रणीत "पाराशर गीता" जिसके नियमित पठन-पाठन तथा स्मरण से जीव मुक्ति मार्ग की ओर अग्रसर हो सकता है। पाराशर गीता महाभारत शान्तिपर्व के मोक्षधर्म में उल्लेखित है इसमें कुल नौ अध्याय हैं। भगवान पराशर द्वारा राजर्षि जनक को दिया गया धर्मोपदेश अत्यंत सुन्दर ढंग से इस गीता में व्याख्याईत है।
कल्याण प्राप्ति के हेतु धर्म के संबंध में भगवान पराशर का कथन है कि मनुष्यों में जैसे धर्म और अधर्म निवास करते हैं उस प्रकार मनुष्य से इतर अन्य प्राणियों में नहीं (पा. गीता 5/29) अर्थात धर्म और अधर्म मनुष्य योनि का गुण है और यह गुण केवल मनुष्यों में ही पाया जाता है। इस गुण के कारण वह अन्य प्राणियों से भिन्न श्रेणी में रखा जाता है। इस प्रकार मनुष्य मात्र को धर्मयुक्त आचरण ही करना चाहिए। धर्म को परम शुभ और शीघ्र फलदायी बताते हुए भगवान पराशर ने बताया है कि धर्म का ही विधि पूर्वक अनुष्ठान किया जाए तो वह इहलोक और परलोक में परम कल्याणकारी होता है। इससे बढ़कर दूसरा कोई श्रेय का उत्तम साधन नहीं है-
धर्म एस कृत: श्रेयनिह लोके परत्र च।
सस्माङ्ग परमं नास्ति यथा प्रादुर्मनीषिण:।। (पा. गीता 1/6)
धर्म की कितनी नष्पाप, सरल और सुन्दर परिभाषा भगवान ने बताई है। वैशेषिक दर्शन के प्रणेता ऋषि कणाद ने भी इसका समर्थन करते हुए कहा है- जिससे इस लोक में अभ्युदय और अन्त में नि-श्रेयस की सिद्धि हो, वह धर्म है। वस्तुत: धर्म वह साधन है जिससे साधक इहलोक में अपनी आत्मोन्नति करते हुए परलोक को भी साध ले अर्थात मुक्ति को प्राप्त कर ले।
वर्णधर्म का पूर्णत: सश्रम पालन करने का निर्देश भगवान पराशर द्वारा दिया गया है। सभी वर्णों के कर्म पूर्व निर्धारित है तथा वर्णधर्म से कर्मच्यूत व्यक्ति को निन्दनीय कहा है- "भीरूराजन्यो ब्राह्मण:........वैश्यो.....हीनवर्णो...... एते सर्वे शोच्यतां......(पा. गीता 1/25-26) अत: जो मनुष्य दुस्कर्म करके वर्णधर्म से भ्रष्ट हो जाता है वह कदापि सम्मान पाने योग्य नहीं है- वर्णेभ्योहि परिभ्रष्टों न वै सम्मानमर्हति"(पा. गीता 2/4)। इस प्रकार वर्णधर्मानुसार स्वधर्म का पालन मनुष्य मात्र को करना चाहिए। भगवद्गीता भी इसी का समर्थन करते हुए कहती है- स्वधर्मे निधंन श्रेयं परधर्मो भयावहृ:"।
चतष्आश्रमों में से गृहस्थाश्रम की सभी धर्मग्रंथों ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। महर्षि पराशर ने भी गृहस्थाश्रम की अधिकाधिक प्रशंसा की है। उनके अनुसार जिस प्रकार सभी नदी-नद सागर में जाकर मिलते हैं, उसी प्रकार समस्त आश्रम गृहस्थ का ही सहारा लेते हैं-
यथा नदीनदा: सर्वेसागरे यान्ति संस्यितिम्।
एवमाश्रमिण: सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम्।। (पा. गीता 6/39)
इस आश्रम में पति और पत्नी एक दूसरे के प्रति सहयुक्त होकर धर्मानुसार व्यवहार करते हैं। गृहस्थाश्रम से ही अन्य आश्रमों का विस्तार और विकास होता है तथा उसी के अनुग्रह और आदर पर अन्य आश्रम पूर्णत: निर्भर करते हैं। इसलिए इस आश्रम का ज्येष्ठ और श्रेष्ठ दोनों कहा है। इस आश्रम रूपी गाड़ी के दो पहिए- पति और पत्नी हैं दोनों को चाहिए कि अत्यन्त संयमपूर्वक, धैर्यपूर्वक इस गाड़ीरूपी गृहस्थ धर्म का संचालन कर सफल जीवन जिएं।
गृहस्थाश्रम के अंतर्गत व्यक्ति कई ऋणों से मुक्ति प्राप्त करता है। भगवान पराशर के अनुसार प्रत्येक मनुष्य देवता, अतिथी, भरण-पोषण योग्य कुटुम्बीजन, पितर तथा अपने-आप का ऋणी होकर जन्म लेता है-
देवतातिथिभृत्येभ्य: पितृभ्यश्चात्मनस्तथा।
ऋणवान् जायते मर्त्यस्तस्मादनृणतां व्रजेत।।(पा. गीता 3/9)
अत: वेद-शास्त्रों का स्वाध्याय करके ऋषियों के यज्ञ कर्म द्वारा देवताओं के श्राद्ध और दान से पितरों तथा स्वागत-सत्कार, सेवा आदि से अतिथियों के ऋण से छुटकारा होता है। इसी प्रकार वेद-वाणी के पढन-श्रवण एवं मनन से यज्ञ शेष अन्न के भोजन से तथा जीवों की रक्षा करके मनुष्य अपने ऋण से मुक्त होता है। भरणीय कुटुम्बीजन के पालन-पोषण आरंभ से ही प्रबंध करना चाहिए, इससे उनके ऋण से मुक्ति होती हो जाती है (पा. गीता 3/10-11)
ऋण मुक्ति का तात्पर्य कर्त्तव्यों का निस्काम भाव से निर्वहन करने से है। ऐसा करने पर जीव अपने प्रकाश को, मूल स्वरूप को उदीप्त कर मुक्त होने का प्रयास करता है।
भगवान पराशर के अनुसार क्रूरता का अभाव (दया), अहिंसा, अप्रमाद (सावधानी), देवता-पितर आदि को उनके भाग समर्पित करना या दान देना, श्राद्धकर्म, अतिथी सत्कार सत्य अक्रोध, अपनी ही पत्नी से संतुष्ट रहना, पवित्रता रखना, कभी किसी के दोष नहीं देखना आत्मज्ञान तथा सहनशीलता सभी वर्णों के सामान्य धर्म हैं (पा. गीता 7/ 23-24)। इसी के साथ इन्द्रीय संयम, क्षमा, धैर्य, तेज, संतोष, सत्यभाषण, लज्जा, अहिंसा, दुर्व्यसन का अभाव तथ दक्षता ये सब सुख देने वाले हैं (पा. गीता 1/20)। उपरोक्त धर्मों या सदाचार में मनुष्य मात्र का अधिकार है तथा इनका पालन अनिवार्यत: किया जाना चाहिए। क्योंकि मनुष्य जैसे-जैसे सदाचार का आरय लेते हैं, वैसे-वैसे सुख पाकर इहलोक और परलोक में भी आनंद भोगते हैं-
यथा यथा हि सदवृत्तमालम्वन्तीतरे जना:।
तथा तथा सुखं प्राप्य प्रेत्य चेह च मोदते।। (पा. गीता 7/30)
यही धर्म का मुल प्रतिफल है।
मनुष्य मात्र को चाहिए कि उपरोक्त सद्गुणों में ही अनुराग रखे दोषों में नहीं। जब मनुष्य का मन कामना और कर्म संस्कारों से रहित हो जाता है तथा वह मिथ्याचार से रहित हो जाता है, उस समय उसे कल्याण की प्राप्ति होती है-
यदा व्यपेतदृल्लेखं मनो भवति तस्य वै।
नानृतं चैव भवति तदा कल्याणमृच्छति।। (पा. गीता 5/31)
अत: कल्याण प्राप्ति के लिए धर्ममयी जीवन सर्वथा वैध होता है।
भगवान पराशर ने मनुष्य जीवन को अनित्य और चंचल कहा है- "अनित्यमिह मर्त्यानां जीविनं हि चलाचलम्" (पा. गीता 4/6)। पंचभूतमय शरीर को निस्सार बताते हुए कहा गया है कि यह शरीर नस, नाड़ी और हड्डियों का समूह है। घृणित और अपवित्र मल-मूत्र आदि से भरा हुआ है। पंचमहाभूतों, श्रोत आदि इन्द्रियों तथा गुणों (वासनामय विषयों) का समुदाय है (पा. गीता 8/14)। इस भौतिक शरीर का जब जीव परित्याग कर देता है, तब यह देह निश्चेष्ट और चेतना शून्य हो जाती है एवं इसके पांच भूत अपनी-अपनी प्रकृति के साथ मिल जाते हैं (पा. गीता 8/16)। इस प्रकार महर्षि जी ने यह आदेश दिया है कि मनुष्य शरीर की नश्वरता को स्वीकारते हुए जीव को उर्ध्वमुखी बनावें तथा कल्याण की प्राप्ति के लिए प्रयास करें।
कर्मानुसार गति होने पर जीवात्मा का पुनर्जन्म भी मानते हुए कहा गया है कि कर्मों के फलस्वरूप पुनर्जन्म स्वभावसिद्ध कहा गया है- "तत्स्वभावोंsपरों दृष्टो विसर्ग: कर्मणस्तथा" (पा. गीता 8/17)। छंदोग्योपनिषद के अनुसार भी जीवों को उनके कर्मानुसार योनियां प्राप्त होती हैं। जो अच्छे आचरण वाले होते हैं वे शीघ्र ही उत्तमयोनि को तथा अशुभ आचरण वाले अशुभ योनि को प्राप्त होते हैं।
इस प्रकार पाराशर गीता मनुष्य को कर्मशील रहते हुए सत्कर्म करने की प्रेरणा देती है। इसके अनुसार अनुष्य की योनि ही वह अद्वितीय योनि है जिसे पाकर शुभ कर्मों के अनुष्ठान से आत्मा का उद्वार किया जा सकता है
इयं ही योनि: प्रथमा यां प्राण्य जगतीपते।
आत्मा वै शक्यते त्रातुं कर्मभि: शुभलक्षणै:।। (पा. गीता 8/32)
अर्थात मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है। चुंकि कृत, कर्म का फल प्राणी को अवश्य ही भोगना पड़ता हे- "जन्तु स्वकर्मफलमरनुते" (पा. गीता 9/39)। इसलिए शुभ कर्मों का ही अनुष्ठान करना चाहिए सब मनुष्य अपने किए हुए हर शुभाशुभ कर्म के अनुसार ही सुन्दर या असुन्दर रूप, अपने से होने वाले योग्य-अयोग्य पुत्र-पौत्रादि का विस्तार, उत्तम या अधम कुल में जन्म तथा द्रव्य- समृद्धि का संचय आदि पाते हैं, इन उत्तम कर्मों का निष्काम भाव से सम्पादन करना ही श्रेयस्कर माना गया है।
इस प्रकार भगवान पराशर प्रणीत पाराशर गीता सुदृढ़ धर्मोपदेशक गीता है। प्रत्येक पारीक बंधु को इस ग्रंथ का नित्य पारायण करना चाहिए। सम्पूर्ण देश में व्याप्त समस्त पारीक समाज संगठनों से मेरा अनुरोध है कि इस अनुपम अद्वितीय धर्मग्रंथ को छपवा कर समाज जनों में वितरित करवाये। युवाओं में इसके प्रति रुचि जाग्रत करने हेतु स्कूल व कॉलेज स्तर के पारीक विद्यार्थियों के लिए "पाराशर गीता ज्ञान परीक्षा" का आयोजन करवायें। ताकि सभी जन इसका लाभ उठा सकें।
सदैव सभी के कल्याण की कामना के साथ-
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद दुख: भाग्भवेता।।
डॉ. जितेंद्र पारीक