कौटिल्य सैन्य विज्ञान

आज अधिकांश विद्वान सैन्य विज्ञान को नवीन अध्ययन धारा के रुप में देखते है किन्तु प्राचीन भारतीय महाकाव्यों, श्रुतियों और स्मृतियों में राज्य के सप्तांग की कल्पना की गयी है। इसमें दण्ड (बल या सेना) का महत्वपूर्ण स्थान है। इस दृष्टि से सैन्य विज्ञान को पुराना ज्ञान कहा जा सकता है जिसका प्रारंभ 'ॠग्वेद' से होता है। 'रामायण और 'महाभारत' युद्ध कला के भण्डार हैं। महाकाव्यों में युद्ध के सैद्धान्तिक और व्यवहारिक पहलू के दर्शन होते हैं। अन्य प्रमुख ग्रन्थों में कौतिल्य का 'अर्थशास्त्र' है जिससे तत्कालीन सैन्य विज्ञान की जानकारी मिलती है। कौटिल्य का 'अर्थशास्त्र' प्राचीन भारतीय रचनाओं में राजशास्त्र का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में प्राचीन भार्तीय यथार्थवादी प्रम्परा के दर्शन होते हैं। 'अर्थशास्त्र' धन संग्रह के उपायों क अध्ययन ही नहीं करता वरन् विभिन्न उपायों द्वारा प्राप्त की गयी भूमि में सुव्यवस्था स्थापित करने तथा मनुष्यों के भरण-पोषण के तरिकों क भी वर्णन करता है। 'अर्थशास्त्र' में शासन व्यवस्था का पूर्ण विवेचन आ जाता है। कौटिल्य ने 'अर्थशास्त्र' के प्रारम्भ में ही चार विधाओं का उल्लेख किया है- आन्वीक्षिकी (दर्शन और तर्क), त्रयी (धर्म, अधर्म या वेदों क ज्ञान), वार्ता (कृषि व्यापार आदि) और दण्ड नीति (शासन कला या राजशास्त्र)। अर्थशास्त्र का प्रतिपाद्य विषय प्रमुख रुप से दण्ड नीति ही है। इसी संदर्भ में सैन्य विज्ञान की जानकारी प्राप्त होती है। इस ग्रन्थ में पन्द्रह अभिकरण हैं। 'अर्थशास्त्र' की रचनाकाल के सम्बन्ध में विद्वनों में पर्याप्त मतभेद है। कीथ, जाली, विण्टरनिट्ज, आर जी भण्डारकर, हेमचन्द्र रायचौधरी, स्टीन आदि ने 'अर्थशास्त्र' को मौर्येत्तर युगीन रचना माना है। लेकिन आर। सामशास्त्री, गणपतिशास्त्री, जैकोबी, के पी जायसवाल, एन एन लाहा, डी आर भण्डारकर, नीलकण्ठ शास्त्री, वी आर आर दिक्षितार इस ग्रन्थ की रचनाकाल चन्द्रगुप्त मौर्य कालीन मानते हैं। रोमिला थापर और के सी ओझा भी अर्थशास्त्र की रचनाकाल मौर्यकालीन स्वीकारतें हैं किन्तु उनकी मान्यता है कि इसमें बहुत सी नयी सामग्री परवर्ती लेखकों ने जोड दी है। वस्तुत: 'अर्थशास्त्र' मौर्यकालीन रचना (तीसरी शताब्दी ईसापूर्व) है इसके मूल रचियता चन्द्रगुप्त मौर्य के गुरु, मन्त्री आचार्य चाणक्य या विष्णुगुप्त कौटिल्य ही है।

सैन्य संगठन:- अधिकांश प्राचीन आचार्यों की तरह कौटिल्य भी छह प्रकार की सेनाओं क उल्लेख करता है- मौलबल (वंश परम्परानुगत), भृतक बल (वेतन पर रखे सैनिकों का दल, श्रेणी बल (व्यापारियों या अन्य जन समुदायों की सेना), मित्र बल (मित्रों या सामन्तों की सेना), अमित्र बल (एसी सेना जो कभी शत्रु पक्ष की थी) और अटवी या आटविक बल (जंगली जातियों की सेना)। लेकिन वह 'औत्साहिक बल' की सतवीं सेना का भी उल्लेख करता है। यह वह सेना थी जो नेतृत्वहीन, भिन्न देशों की रहने वाली, राजा की स्वीकृति या अस्वीकृति बिना दूसरे देशों में लूटमार करती है। यह सेना भेद्य सेना है। कौटिल्य इन सेनाओं में पर की अपेक्षा पूर्व को श्रेष्ठ बताता है। वह सेना के विभिन्न प्रकारों के संदर्भ में विस्तार से लिखता है। वह मौल बल को राजधानी की रक्षा करने वाली, भृतक बल को सवैतनिक सेना, श्रेणी बल को विभिन्न कार्यों में नियुक्त करने वाली शस्त्रास्त्र में निपुण सेना, मित्रबल को मित्र की सेना, अमित्र बल को शत्रु राज्य की सेना, जिस पर विजय प्राप्त कर लिया गया है और अटवी बल को अटविक सेना कहता है। वह इस सेनाओं को भिन्न-भिन्न अवसरों पर प्रयुक्त करने की बात करता है। प्राचीन भारत में क्षत्रीय, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र सभी वर्गों को सेना में स्थान प्राप्त था। अन्य विद्वानों के अनुसार उत्तर की अपेक्षा पूर्व की सेना अधिक श्रेष्ठ है, लेकिन कौटिल्य इसे स्वीकार नहीं करता। उसके अनुसार सुन्दर ढंग से प्रशिक्षित क्षत्रीयों का दल या वैश्यों का दल ब्राह्मणों के सैन्य दल से कहीं अधिक अच्छा होता है, क्योंकि शत्रु लोग ब्राह्मण के चरणों में झुककर उन्हें अपनी और मोड सकते हैं। वह क्षत्रीय सेना को श्रेष्ठ मानता है। वैश्य और शूद्र सेना को भी श्रेष्ठ बताता है, यदि उनमें वीर पुरुषों की अधिकता हो। वह चतुरंगिणी सेना का समर्थन करता है। प्राचीन भारतीय सेना के चार अंगों पैदल सैनिक, हस्तिसेना, अश्वसेना और रथसेना में वह हस्तिसेना को सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानता है। वह जल सेना का उल्लेख नहीं करता। 'अर्थशास्त्र' में उसके द्वारा लिखित नवाध्यक्ष कार्य जलमार्गों और उनमें काम आने वाली नौकाओं की व्यवस्था करना मात्र है। उसके विचार में दस हाथियों के अधिकारी को पदिक, दस पदिकों के अधिकारी को सेनापति और दस सेनापतियों के अधिकारी को नायक कहा जाता है। नायक सेना में वाद्य शब्दों, ध्वज, पताकाओं द्वारा सांकेतिक आदेश देता है, जिसमें व्यूह के अंतर्गत सेना को फैलाया या एकत्र किया जाता है साथ ही उसे आक्रमण करने या लौटने का आदेश दिया जाता है। किन्तु वह छ प्रकार के रथों का विभाजन करता है :-

१ देवरथ - यात्रा उत्सव आदि पर देव प्रतिमा की स्थापना के लिए।

२ पुष्परथ - विवाह आदि कार्यों के लिए।

३ सांग्रामिकरथ - युद्ध आदि कार्यों के लिए।

४ पारिमाणिकरथ - सामान्य यात्रा के लिए।

५ परियानिकरथ - शत्रु के दुर्ग को तोडने के लिए।

६ वैनयिकरथ - घोडों आदि को सिखाने के लिए।

गुप्तचर सैन्य संगठन का एक भाग था। कौटिल्य न केवल युद्धकालीन वैदेशिक सम्बन्धों वरन् शान्तिकालीन सम्ब्न्धों का विवेचान किया है। वह दूत भेजने और दूत व्यवस्था को अपनाने की सलाह देता है। उसके अनुसार विभिन्न राज्यों में गुप्तचर भेजकर उन राज्यों की स्थिति तथा नीति का ज्ञान प्राप्त करने और उन्हें अपने अनुकुल करने और बनाये रखने का प्रयत्न किया जाना चाहिए। ये गुप्तचर व्यापारी, शिक्षक, भिक्षुक, धर्मप्रचारक आदि रुपों में भेजे जा सकते हैं। वह दूतों को तीन श्रेणियों - निसृष्टार्थ, पृमितार्थ व शासनहार में विभक्त करता है। ये क्रमश: पूर्ण अधिकार सम्पन्न, तीन चौधाई गुणों वाले और आदी शक्ति वाले होते हैं। कौटिल्य दूतों को पर स्त्री और मद्य के दुर्व्यसन से मुक्त रहने की सल्लह देता है।सैन्य अनुशासन :- अनुशासन् के विभिन्न तत्वों - युद्ध समय, सेना क कूच, युद्ध स्थान, आन्तरिक एवं बाह्य परिस्थितियां एवं आपाद एवं उपायों का वर्णन कौटिल्यने 'अर्थशास्त्र' में किया है। वह शत्रु पर आयी विपत्ति, राजा के व्यसन में लिप्त होना, स्वयं की शक्ति सम्पन्न्ता और शत्रु सेना की कमजोरी को युद्ध की आवश्यक परिस्थितियां स्वीकार करता है। उसके अनुसार यह अवसर शत्रु पर चढाई के लिए उपयुक्त है क्योकिं इस समय शत्रु का पूर्ण विनाश के मूल उद्देश्य को प्राप्त किया जा सकता है। कौटिल्य ने महाभारत में वर्णित दो युद्ध यात्रा काल का उल्लेख किया है- अगहन (नवम्बर-दिसम्बर), चैत्र (मार्च-अप्रैल) और ज्येष्ठ (मई-जून)। वे इन यात्राकालों के अलग-अलग कारण बततें है। ज्येष्ठ मास के युद्ध यात्रा काल में बसन्त की पैदावार और भविष्य की वर्षाकाल की फसल नष्ट किया जा सकता है। इस काल में घास, फूल, लकडी, जल आदि सभी क्षीण हुए रहतें है। इसलिए शत्रु को अपने दुर्ग के मरम्मत करने में परेशानी होती है। वे लिखते है कि पशुओं की खाद्य सामग्री, ईंधन, जल की कमी वाले अत्यन्त गरम प्रदेश में हेमन्त ऋतु में, बर्फीले घने जंगलों और अधिक वर्षा वाले प्रदेश में ग्रीष्म ऋतु में तथा अपनी सेना के लिए उपयुक्त और शत्रु सेना के लिए अनुपयुक्त प्रदेश में वर्षा ऋतु में यात्रा करनी चाहिए। दूर देश में यात्रा करने का समय मार्गशीर्ष और पौष (नवम्बर से जनवरी) तक का, मध्यम दूरी में सैन्य यात्रा का काल चैत्र वैशाख (मार्च से मई) तक का और अल्प यात्रा के लिए ज्येष्ठ आषाढ (मई से जुलाई) तक का कल उपयुक्त होता है। आसान मार्ग पर चलने वाले राजा पर प्रतिकुल मार्ग से आक्रमण नहीं हो सकता। युद्ध यात्रा करते समय गावों जंगलों और मार्गों में ठहरने योग्य स्थानों का, घास और जल के अलावा लकडी आदि के अनुसार निर्णय कर वहां पहुंचने-ठहरने, वहां से जाने आदि का पहले से ही समय निर्धारित करके विजिगीषु को यात्रा के लिए घर से निकलना चाहिए। आवश्यकता की सभी वस्तुएं दुगुनी मात्रा में यात्रा के लिए रखी जानी चाहिए या पडाव के लिए नियत स्थान से ही आवश्यक सामान का संग्रह करके साथ ले जाया जा सकता है। वह अन्त:पुर और राजा को सेना के बीच में चलने की सलाह देता हैं। जबकि शुक्राचार्य अतिरिक्त कोष और सेनापति को सलाह देते हैं। यदि पर्वत आदि से भय हो तो व्यूह बद्ध होकर भी यात्रा की जा सकती हैं। वह युद्ध योग्य भूमि के संदर्भ में भी विस्तार से करता है, साथ ही प्रत्येक सेना के सैनिकों के युद्ध के लिए ठहरने के लिए उपयुक्त भूमि को आवश्यक बताता हैं। वह युद्ध स्थल को सैनिक पडाव से पांच सौ धनुष के फासले पर होने की भी सलाह देता है। भूमि को सैन्य उपयोगिता के आधार पर पास या दूर रखा जा सकता है। कौटिल्य सेनानायक को ४८००० पण वार्षिक, हाथी, घोडे, रथ के अध्यक्ष क्को ८००० पण वार्षिक, पैदल सेना, रथ सेना, अश्वसेना और गजसेना, के अध्यक्ष को ४००० पण वार्षिक देने की बात करता हैं। इसी प्रकार वह स्थायी या अस्थायी कर्मचारियों को योग्यता व कार्यदक्षता के अनुसार कम या ज्यादा वेतन देने का उल्लेख करता है। यदि राजकोष में अर्थ की कमी हो तो राजा के लिए वह सलाह देता है कि आर्थिक सहायता के बदले पशु तथा जमीन आदि से कृपार्थियों की सहायता करे। यदि कार्य करते हुए किसी कर्मचारी की मृत्यु हो जाय तो उसका वेतन उसके पुत्र, पत्नी को प्रदान करना चाहिए। अपने मृत कर्मचारियों के बालकों, वृद्धों और बीमार परिजनों पर कृपादृष्टि बनाये रखे। उनके घरों पर मृत्यु, बीमारों या बच्चा हो जाने पर उनकी आर्थिक तथा मौखिक सहायता करता रहे। कौटिल्य आपद और उपायों की चर्चा करते हुए लिखता है कि षड्गुण्य नीति - सन्धि, विग्रह (युद्ध), यान (शत्रु पर वास्तविक आक्रमण), आसन (तटस्थता), संश्रय (बलवान का आश्रय लेना) और द्वैधीभाव (संधि और युद्ध का एक साथ प्रयोग) का उनके उचित स्थलों पर उपयोग नहीं करने के कारण सारी विपत्तियां उत्पन्न होती हैं। वह इनके उपाय भी बताता हैं। सैन्य अस्त्र शस्त्र :- प्राचीन ग्रंथों में मुक्त, अमुक्त, मुक्तामुक्त और मन्त्रमुक्त चार प्रकार के अस्त्रशस्त्रों का उल्लेख मिलता है। लेकिन कौटिल्य दो प्रकार के स्थिर और चल यन्त्र का उल्लेख करता है। 'अर्थशास्त्र' में चार प्रकार के धनुषों का वर्णन किया गया है- ताल (ताल की लकडी का बना हुआ), दरब (मजबूत लकडी का बना हुआ), चोप (अच्छे बास का बना हुआ) और सारंग (सींग का बना हुआ)। आकृति और क्रीयाभेद से उन्हे कार्मुक, कोदण्ड, द्रुण, सारंग आदि नाम बताये जाते है। इसी तरह वह पांच प्रकार के वाणों का वर्णन करता है- वेणु (बान्स), शर (नरशल), शलाका (मजबूत लकडी) दण्डासन (आधा लोहा, आधा बांस) और नारच (सम्पूर्ण लोहे का)। अन्य चल यन्त्रों में वह तीन प्रकार के खड्ग फरसा, कुल्हाडा, त्रीशुल आदि का उल्लेख करता है। आयुधों में वह यन्त्रपाषाण, गोष्फल पाषाण, मुष्टिपाषाण, राचनी आदि का ब्यौरा देता है। वह इन अस्त्र शस्त्रों के निर्माण रख्रखाव आदि का काम आयुधागाराध्यक्ष को सौंपता है जो कुशल कारीगरों और शिल्पियों के द्वारा युद्ध के सभी साधनों का निर्माण कराता था। वह उन्हे उचित स्थानों पर रखवाता था ताकि वे जंग से बचे रहें और समुचित धूप मिलती रहें। वह इन कारीगरों, शिल्पियों और इन्जीनियरों को उचित वेतन देने की बात भी करता हैं। युद्ध प्रकार:- कौटिल्य तीन प्रकार के युद्ध बताता है - प्रकाश या धर्मयुद्ध, और तूष्णी युद्ध। प्रकाश या धर्मयुद्ध तैयारी के साथ विधिवत रुप से घोषित युद्ध है। जिसमें दोनों पक्षों की सेनायें युद्धस्थल में नियमानुसार संघर्ष करती है। इस युद्ध के कुछ नियम हैं जैसे शरणागत शत्रु पर वार नही करना, दग्धी अस्त्रों का प्रयोग नहीं करना आदि। कूट युद्ध छलकपट, लूटमार, अग्निदाह आदि तरीकों से किया गया युद्ध है जबकि तूष्णि युद्ध निकृष्ट प्रकार का युद्ध है इसमें सेनायें विष सदृश साधनों का प्रयोग करती हैं। और गुप्त रुप से मनुष्यों का वध करती हैं। वह राज्याभिलाषी राजा को परिस्थिति के अनुसार तीनों में से किसी युद्ध का आश्रय लेने की सलाह देता है। शत्रु साधनों का नष्ट करने, फसलों को नुकसन पहुंचाने और जल को दूषित करने को वह न्योयोचित मानता हैं। व्युह रचना:- प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में, विशेषकर 'धनुर्वेद' में, सात प्रकार के व्यूह का उल्लेख मिलता हैं। लेकिन कौटिल्य दण्ड, भोग, मण्डल और असंहत नामक चार प्रधान व्यूहों का उल्लेख करता हैं। उसके अनुसार इन व्यूहों से अनेक व्यूह बनते हैं जिनके निर्माता असुर गुरु शुक्राचार्य और देवगुरु वृहस्पति हैं। बज्रव्यूह, अर्द्धचंदृका व्यूह या कर्कटक व्यूह, श्येन व्यूह, मकर व्यूह, शकट व्यूह, सुची व्यूह, सर्वतो भद्र व्यूह आदि व्यूहों के निर्माण का वर्णन 'अर्थशास्त्र' में प्राप्त होता है। कौटिल्य इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि यदि सामने की ओर से शत्रु के आक्रमण की आशंका हो तो मकराकार व्यूह की रचना करके शत्रु की ओर बढना चाहिए, यदि अगल-बगल से आक्रमण की सम्भावना हो तो सर्वतोभद्र व्यूह बनाकर और यदि मार्ग इतना तंग हो की उसमें एक साथ न जाया जाय तो सुची व्यूह बनाकर आगे बढना चाहिए। दुर्ग:- अर्थशास्त्र में चार प्रकार के दुर्गों के उल्लेख प्राप्त होते हैं औदक, पार्वत, धान्वान और वन दुर्ग। चारों और पानी से घिरा हुआ टापू के समान गहरे तालबों से आवृत स्थल पर बना दुर्ग 'औदक दुर्ग' कहलाता हैं।

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