पारीक 'ब्राह्मण उत्‍पति'

सृष्टि के आरंभ में सर्वत्र अंधकार ही अंधकार था, किसी भी वस्‍तु या नाम रूप का भान नहीं होता था। उस समय विशाल अंड प्रकट हुआ जो संपूर्ण प्रजाओं का अविनाशी बीज था। उस दिव्‍य एवं अविनाशी महान बीज अंड में सत्‍य स्‍वरूप ज्‍योतिर्मय सनातन ब्रह्म अन्‍तर्याति रूप से प्रविष्‍ट हुआ। उस अंड से ही प्रथम देहधारी प्रजापालक देवगुरु ब्रह्मा का आविर्भाव हुआ। प्रजापति ब्रह्मा ने 'एकोsहं बहुस्‍याम्' संकल्‍प करके तपस्‍या द्वारा तीन लोक पृ‍थ्‍वी, अंतरिक्ष एवं स्‍वर्ग की रचना की अनन्‍तर ब्रह्मा के मुख से ऊंकार वेदमाता गायत्री और वेद प्रकट हुए। बाद में ब्रह्मा जी प्रजासर्ग की कामना से महर्षि वशिष्‍ठ आदि मानस पुत्रों को उत्‍पन्‍न किया। भृगु, अंगिरा, मरीचि, पुलस्‍त्‍य, पुलह, कृतु, अत्रि और वशिष्‍ठ ये आठों महर्षि ब्रह्मा के पुत्र हैं। इन्‍होंने सम्‍पूर्ण जगत को पैदा किया और इन्‍होंने सृष्टि बढ़ाई। अतएव यह ब्रह्मा पुत्र प्रजापति कहलाए। वशिष्‍ठजी ब्रह्मा जी के मानस पुत्र थे। इन्‍हीं की गणना सप्‍तऋषियों में की जाती है। ये ही उत्तर काल में मैत्रावरूणीय वशिष्‍ठ हुए। इन्‍होंने कर्दभ ऋषि की पुत्री अरुन्‍धति के साथ विवाह किया। जिससे इन्‍हें शक्ति आदि सौ पुत्र उत्‍पन्‍न हुए।

पराशर जी इनके पौत्र थे। वशिष्‍ठ जी मूल गौत्र प्रवर्तक चार ऋषियों में से एक हैं। इक्‍कीस प्रजापतियों में भी इनकी गणना होती है। इनके अन्‍य नाम हैं आपव, आरुन्‍धति‍पति, ब्रह्मर्षि, देवर्षि, हैरण्‍यगर्भ, मैत्रावरुणी तथा वारूणी। वशिष्‍ठ जी सच्‍चे अर्थों में ब्रह्मज्ञानी और ब्रह्म ऋषि थे। इनकी आयु भी वेद एवं पुराणों आदि के आधार पर अनन्‍त हुआ करती थी। कई विद्वानों के अनुसार वशिष्‍ठ उपाधि हुआ करती थी। शक्ति इन्‍हीं महर्षि वशिष्‍ठ के महामनस्‍वी पुत्र थे जो अपने सौ भाइयों में ज्‍येष्‍ठ व श्रेष्‍ठ मुनि थे। शक्ति द्वारा स्‍थापित अदृश्‍यन्ति के गर्भ से पराशर का जन्‍म हुआ था।

वशिष्‍ठ जी को इनके गर्भस्‍थ बालक के मुख से वेदाध्‍ययन करने के शब्‍द सुनाई दिए थे। पराशर जी ने बारह वर्षों तक अपनी माता के गर्भ में वेदाभ्‍यास किया था। इनका जन्‍म इनके पिता शक्ति मुनि की मृत्‍यू के बाद हुआ था। पराशर जी का विवाह सुमन्‍तु ऋषि की कन्‍या सत्‍यवति से हुआ था। सत्‍व सत्‍य एवं सदगुण सम्‍पन्‍न होने के कारण सत्‍यवती के नाम से प्रसिद्ध हुई। पराशर जी के पुत्र वेद व्‍यास जी हुए। पराशर जी के नाम पर पारीक वंश प्रचलित हुआ। वेद व्‍यास जी का जन्‍म पराशर मुनि से माता सत्‍यवति के गर्भ से हुआ। इनको कानीन भी कहते हैं।

नारी की कन्‍या अवस्‍था में विवाह से पहले जो पुत्र पैदा होता है वह कानीन कहलाता है। जैसे व्‍यास, कर्ण, शिवी और अष्‍टक आदि। व्‍यास जी पैदा होते ही माता की आज्ञा से तपस्‍या करने वन को चले गए। और जाते समय कह गए कि जब तुम्‍हें मेरी कोई जरूरत हो तो मुझे स्‍मरण करना, मैं स्‍मरण करते ही तुम्‍हारी सेवा में उपस्थित हो जाऊंगा। कालक्रम से इसी सत्‍यवति का विवाह चन्द्रवंशीय राजा शान्‍तनु से हुआ। जिस विवाह को देवव्रत भीष्‍म पितामह ने महान त्‍याग करके सम्‍पन्‍न करवाया था। जब शान्‍तनु पुत्र विचित्रवीर्य का देहांत हो गया और कोई राज्‍याधिकारी न रहा। तब सत्‍यवति ने व्‍यास जी का स्‍मरण किया।

और इनके योगबल से धृतराष्‍ट्र, पांडु और विदुर का जन्‍म हुआ। ब्रह्म ऋषि व्‍यास जी परम ब्रह्म और अपर ब्रह्म के ज्ञाता कवि (त्रिकालदर्शी) सत्‍यव्रतपरायण तथा परम पवित्र हैं। इनकी बनाई हुई महाभारत संहिता सब शास्‍त्रों के अनुकूल वेदार्थों से भूषित तथा चारों वेदों के भावों से संयुक्‍त है। प्रत्‍येक मन्‍वन्‍तर और प्रत्‍येक द्वापर में भिन्‍न-भिन्‍न व्‍यास हुआ करते हैं। व्‍यास जी का नाम व्‍यास इसलिए पड़ा कि वे वेदों का विभाग करते हैं। वैवस्‍वत मनवन्‍तर के अठाईसवें द्वापर में म‍हर्षि पराशर के द्वारा सत्‍यवति के गर्भ से उत्‍पन्‍न होने वाले भगवान कृष्‍ण द्वैपायन ही व्‍यास हुए हैं।

व्‍यास जी की पत्‍नी का नाम पिंगला था। इनके गर्भ से ही महाम‍ुनि शुकदेव का जन्‍म हुआ था जिन्‍होंने माता के गर्भ में ही लौकिक बंधनों से मुक्‍त होने की कामना आरंभ कर दी थी। भगवान वेदव्‍यास ने भागवत पुराण का प्रणयन कर लिया किन्‍तु उनके सम्‍मुख अध्‍यापन की समस्‍या थी। उन्‍होंने अपने ध्‍यान बल से देखा तो उन्‍हें ज्ञात हुआ कि श्री शुकदेव के अन्‍त: स्‍थल में पहिले से ही श्रीमद्भागवत के संस्‍कार विद्यमान हैं। क्‍योंकि पूर्व जन्‍म में जब वो तेते केगले हुए अंडे के रूप में कैलाश पर्वत पर पड़े हुए थे तब भगवान शंकर के मुख से श्रीमद्भागवत की कथा सुनकर ये जीवित हो गए थे और पार्वती के सो जाने पर भी ऊं ऊं का उच्‍चारण करते हुए स्‍वीकृति वचन देते रहे थे।

श्री शुकदेव जी गृहस्‍थाश्रम में प्रवेश लेना नहीं चाहते थे। व्‍यास जी ने उन्‍हें बहुत समझाया अंत में विदेहराज जनक जी के यहां धर्म की निष्‍ठा एवं मोक्ष का परम आशय पूछने के लिए मिथिला भेजा। राजा जनक ने अनेक प्रकार से परीक्षा लेकर उनमें पात्रता देखकर उन्‍हें गृहस्‍थाश्रम का महत्‍व बतलाते हुए विवाह करने का उपदेश दिया था। मिथिला से लौटकर उन्‍होंने पिता की आज्ञा से 'पीवरी' नामक पितरों की कन्‍या से विवाह किया. उसमें उन्‍होंने पांच पुत्र कृष्‍ण, गौर, प्रभु, भूरी, देवश्रुत तथा किर्ती नाम (कृत्‍वी) कन्‍या उत्‍पन्‍न की। शुकदेव जी की पुत्री कृत्‍वी से ब्रह्मदत्त उत्‍पन्‍न हुए। इनका दूसरा नाम पितृवर्ती था। श्राद्धकल्‍प में किए जाने वाले श्‍लोकों के पाठ से ब्रह्मदत्त जी का घनिष्‍ठ संबंध है। इन श्‍लोकों के पाठ से पितरों की तृप्‍ती मानी जाती है। ब्रह्मदत्त जी का विवाह देवल ऋषि की कन्‍या सन्‍नति से हुआ था। इनकी दूसरी पत्‍नी का नाम गौ था। ब्रह्मदत्त जी ने काशीराज की नौ कन्‍याओं से विवाह किये थे, जिससे 103 खांप पारीकों की उत्‍पति हुई।

कतिपय विद्वानों के अनुसार पराशर जी की पत्‍नी का नाम मत्‍स्‍यगंधा, व्‍यासजी की पत्‍नी का नाम अरणि तथा शुकदेव जी की पत्‍नी का नाम पीवरी था उनके पुत्र और एक कन्‍या का होना बताया है। शुक‍देव जी की कन्‍या कीर्तिमति का विवाह विभ्राज के पुत्र अणुह के साथ हुआ था।

शुकदेवजी ने अपने 12 पुत्रों को विद्या पढ़ने के लिए भेज दिया था। उन 12 पुत्रों के नाम भूरश्रवा(भारद्वाज), प्रभु (पराशर), शंभु (कश्‍यप), कृष्‍ण (कौशिक), गौर (गर्ग), श्‍वेतकृष्‍ण(गौतम), अरुण(मुद्गल), गौरश्‍याम(शान्डिल्‍य), नील (कोत्‍स), धुम्र(भार्गव), बादरि(वत्‍स), उपमन्‍यु(धोम्‍य) इनमें से 12 नाम गुरुजी द्वारा दिए गए हैं। एक अन्‍य पुस्‍तक में लिखा है कि शुकदेव जी के कीर्तिमति नाम कन्‍या तथा पांच पुत्र हुए जिनके नाम भूरिश्रवा:, प्रभु:, शम्‍भु:, कृष्‍ण: तथा गौर: हैं। कीर्तिमति को शुक वंश में प्रसिद्ध होने के कारण ब्रह्मदत्त जी भी पराशर के पक्ष में गये।

पारीक शब्‍द के बारे में विद्वानों का लेख है कि पार ऋषि का नाम पराशर जी है इसलिए उनके वंशज पारीक हैं। शुकदेव जी के 12 पुत्रों के नाम पर ही पारीक ब्राह्मणों के 12 गोत्र हैं। पारीक ब्राह्मणों के 9 अवंटक या नख हैं, गौत्र ये है भारद्वाज, कश्‍यप, वत्‍स, उपमन्‍यु, कौशिक, गर्ग, शान्डिलय, गौतम, कौत्‍स, पराशर, भार्गव तथा मुद्गल। नख-व्‍यास-7 जोशी-37 तिवाड़ी-27 मिश्र(बोहरा)- 9 पुरोहित- 4, उपाध्‍याय-13 कौशिकभट्ट- 1 पाण्‍डेय-4 द्विवेदी-1। पारीकों की कुल माताएं 22 हैं इन सबका विस्‍तृत विवरण एक चार्ट के रूप में प्रकाशित किया गया है इसे अवश्‍य देखें।

पारीक जाति का इतिहास पुस्‍तक के अनुसार वेदोक्‍त कर्मों की परीक्षा न्‍यायसंगत युक्तियों से विचार करके स्‍वात्‍मा का कल्‍याण करने की शक्ति रखात हो उसको विद्वान लोग पारीक्ष कहते हैं। चार सौ वर्षों पूर्व इस वंश में 108 शाखाएं थी वर्तमान काल में अनुमान से 80 ही हैं। शुकदेव जी की कन्‍या कृत्‍वी का विवाह विभ्राज के पुत्र अणुह के साथ हुआ इनसे ब्रह्मदत्त हुए। ये महातपस्‍वी और ज्ञानी ब्रह्मदत्त शुकदेव की इच्‍छानुसार पराशर के वंश में गये। उस पक्ष में जाने से ही (पुत्री का धर्मानुसार) ब्रह्मदत्त और उनकी सन्‍तान 'पाराक्‍य' कहलाए। इसी का अपभ्रंश 'पारीक' है। पारीक शब्‍द की व्‍युत्‍पति में अन्‍य प्रमाण हेतु यह भी प्रतीत होता है कि पराशर को 'पारऋषि' ऐसा नाम मिला हुआ था इससे पारर्ष व पारीख विद्ध हुवा प्रमाणित होता है अथवा ब्रह्मदत्त के पूर्वजों में पैर और पार नाम के दो बड़े तपस्‍वी हुए हैं इनके कुल के लोग सहज ही पारीक कहलाए होंगे। आयोध्‍या में सरयु के 'पार' रहने से भी पारीक कहाया जाना सुना गया है।

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