पूर्व वैदिक युग में वर्तमान कालीन यज्ञोपवीत पद्धति का प्रचलन संभवत: नहीं था, क्योंकि उपनयन संस्कार के अवसर पर यज्ञोपवीत का वर्णन नहीं आता है परन्तु यज्ञोपवीत का वैदिक अर्थ यही सिद्ध करता है कि इस समय भी यज्ञोपवीत पहना जाता था। यज्ञोपवीत का अर्थ होता है, यज्ञ के समय पहना हुआ। संभवत: पूर्व वैदिक काल में उत्तरीय धारण करने का नियम ही सर्वमान्य था। उत्तरीय धारण करने की तीन विधियों के नाम क्रमश: निवीत, आवीत और उपवीत मिलते हैं, इनमें से उपवीत विधि से उत्तरीय धारण करने का प्रचलन वेदों में था। यज्ञ करते समय मानव भी देव कोटि में आ जाता था। अत: यज्ञ के अवसर पर वह भी उत्तरीय धारण करता था पश्चात समग्र जीव विन्यास को ही यज्ञ मानकर सदैव यज्ञोपवीत उत्तरीय धारण करने की रीति का प्रचलन हुआ।
सूत्र युग में सूत के बने हुए जनेऊ का विकल्प का प्रचलन हुआ, नियम बना कि गृहस्थ को सदैव उत्तरीयका सुत्र उपवीत विधि से धारण करना चाहिए। उत्तरीय साधारणतया मृत चर्म से बना होता था। यदि विकल्प से सूत्र धारण किया जा सकता था तो भारत की जलवायु से संभवत: चर्म के उत्तरीय स्थान पर सूत्र के जनेऊ से सुविधा हो सकती थी, इस सुत्र के जनेऊ का प्रचलन बढ़ा यद्यपि सूत्र के जनेऊ ने 'सूत्रकाल' में उत्तरीय का स्थान ले लिया था। फिर भी भोजन करते समय उत्तरीय को यज्ञोपवीत विधि से धारण करने का नियम बनाकर वैदिक उत्तरीय को सदा के लिए अक्षुण रखा गया।
हिन्दु और ब्राह्मण होने का प्रधान चिन्ह यज्ञोपवीत है। इसके धारण करने के पीछे धार्मिक एवं वैज्ञानिक रहस्य है। इस रहस्य से परिचित एवं लाभान्वित होना हर हिंदू का कर्तव्य है, क्योंकि किसी भी वस्तु का लाभ, महत्व, और रहस्य जाने बिना उस पर श्रद्धा और आस्था उत्पन्न नहीं होती। अविश्वास एवं संदेह रहने पर किसी भी चीज का पूरा लाभ नहीं उठाया जा सकता। इसकी उपयोगिता, आवश्यकता एवं लाभ की प्राप्ति का ध्यान रखते हुए ही नियम-उपनियम बनाये बनाए गये हैं। ‘सूत्र’ का विषय भी ऐसा ही नियम है। इसका सर्वोपरि महत्व हमारे वेदों, उपनिषदों, धर्मग्रंथों से स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। इन सबसे यह प्रतीत होता है कि इनके पीछे मनुष्य के लिए कोई बहुत बड़ी लाभदायक शक्ति छिपी हुई है। जिस प्रकार पूजा-पाठ करने का तात्पर्य ईश्वर के प्रति भक्ति उत्पन्न करना है, उसी प्रकार जनेऊ के सम्बंध में भी इसके धारण करने और नियमों का पालन स्वत: ही ब्राह्म्णत्व एवं हिंदुत्व के लिए समर्पित होना है। यज्ञोपवीत का अर्थ मानव जीवन की पूर्ण उन्नति करना है। इसे धारण करना मनोवैज्ञानिक प्रयोजन है, जिसके द्वारा मनुष्य अपने आपकी दृष्टि में तथा दूसरों की भी दृष्टि में सिद्धांतवादी, आदर्श का अनुयायी, मनुष्यता का पुजारी, पशुता के बंधनों से मुक्ति पाने का आकांक्षी तथा सत्यपथवादी बन सकना है।
यज्ञोपवीत के तीन प्रधान तार होते हैं जो सृष्टि के समस्त पहलुओं में व्याप्त त्रिविध धर्मों की ओर हमारा ध्यान दिलाते हैं। तीन सूत्रों से तीन ऋणों का भी बोध होता है जैसे ब्रह्मचारी से ऋषि ऋण, यज्ञ से देव ऋण और प्रजापालन से पितृऋण चुकाया जाता है। पूर्व जन्मों में संचित हुए पाप यज्ञोपवीत सूत्र धारण करने मात्र से ही नष्ट हो जाते हैं, लेकिन आज के युग में ब्राह्मण भी इस पवित्र सूत्र को धारण नहीं कर रहे हैं। फलस्वरूप पथ-भ्रष्ट होकर नाना प्रकार के दुख उठाने पड़ते हैं। यज्ञोपवीत को ब्राह्मणों के अतिरिक्त क्षत्रिय एवं वैश्य को भी धारण करने का अधिकार शास्त्रों में है। इसे धारण करने का विधान तीनों (ब्राह्मणों, क्षत्रिय, वैश्य) के लिए अलग-अलग आयु के अनुसार भी है, लेकिन विवाह के समय अवश्य ही धारण करने का निर्देश है। इस पवित्र सूत्र में क्या रहस्य है इसको जानना द्विजमात्र का धर्म है, अत: सर्वप्रथम इसके निर्माण का रहस्य ज्ञात करना चाहिए। शुद्ध पवित्र सूती धागा जो खंडित नहीं तथा एक धागा हो, जिसकी लंबाई 96 अंगुल अपने हाथ की अंगुलियों से होनी चाहिए। क्योंकि स्मृतिकारों का मत है कि मनुष्य की ऊंचाई अधिक से अधिक 108 अंगुल होती है और मध्य ऊंचाई 96 अंगुल होती है। यह 96 अंगुल ही क्यों लिया जाता है इसका भी कारण है। वर्ष में 12 मास, 15 तिथि, 7 वार, 27 नक्षत्र, 25 तत्व, 4 वेद, 3 गुण, 3 काल इन सबका योग 96 होता है। आचार्यों के मत से 4 वेदों का सार ब्रह्म गायत्री 24 अक्षर हैं अत: 4x24=96 अंगुल ही श्रेष्ठ है।
ब्राह्मणों को तीनों वेदों का अधिकारी माना गया है। अत: इस 96 अंगुल तंतु को 3 लड़ा करके हाथ से कातते हैं तो धागा स्वयं त्रिगुणी हो जाता है और इसी धागे से यज्ञोपवीत बनाया जाता है फिर इसके ऊपर प्रथम ग्रंथी ब्रह्मा की, द्वितीय ग्रंथी विष्णु की, तृतीय ग्रंथी महेश की और उसके ऊपर जो गांठ लगाई जाती है वह ऊं स्वरूप है। इन तीनों ग्रंथियों को श्री ब्रह्मा ने तीनों वेदों से अभिमंत्रित कर तीन धागों का यह सूत्र बनाया, श्री विष्णु ने उपासना ज्ञान द्वार इसे अभिमंतित्रत कर त्रिगुणित किया तथा रूद्र ने इसे गायत्री मंत्र द्वारा अभिमंत्रित कर ग्रंथी दी, अस्तु तीन गुणा तीन बराबर भी उत्पन्न हुए। इस प्रकार यज्ञोपवीत में मंत्रों एवं भावना से बनने वाला सूत्र चमत्कृत होता है। यह नौ गुणा हैं प्रथम तंतु ओमकार, द्तिीय में अग्नि, तृतीय में नागदेव, चतुर्थ में सामदेव, पंचम में पितृदेव, षष्टम में प्रजापति, सप्तम में मारूत, अष्टम में सूर्य एवं नवम में सम्पूर्ण देवताओं का वास है।
आज स्वयं द्वारा यज्ञोपवीत निर्माण करने का अभाव है इस कारण यज्ञोपवीत धारकों के लिए उचित है कि बाजार से खरीदे गये सूत्र को किसी पात्र में रखकर गंगाजल से प्रक्षालित करें, फिर निम्नलिखित एक-एक मंत्र पढ़कर चंदन, चावल, फूल को यज्ञोपवीत पर छोड़ता जाये- प्रथम तन्तौ ऊं ओंकारमावाह्यामि। द्वितीय तन्तौ ऊं अग्निमावाह्यामि। तृतीय तन्तौ ऊं सर्पानावाह्यामि। चतुर्थ तन्तौ ऊं सोममावाह्यामि। पंचम तन्तौ ऊं पितृनावाह्यामि। षष्ठं तन्तौ ऊं प्रजापतिमावाह्यामि। सप्तम तन्तौ ऊं अनिलमावाह्यामि। अष्टं तन्तौ ऊं सूर्यमावाह्यामि। नवम तन्तौ ऊं विश्वानदेवानावाह्यामि। प्रथम ग्रंथौ ऊं ब्रह्मणे नम:। द्वितीय ग्रंथौ ऊं विष्णवे नम:। तृतीय ग्रंथौ ऊं रुद्राय नम:।
ऊं यज्ञोपवीतमिति मन्त्रस्य परमेष्ठि ऋषि: लिंगोक्ता।
देवता: त्रिष्टुप छन्द: यज्ञोपवीत धारणे विनियोग:।।
उपरोक्त विनियोग के बाद निम्न मंत्र द्वारा यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए।
ऊं यज्ञोपवीतम्परम पवित्रं प्रजापतेर्यत सहजं पुरस्तात।
आयुष्यमग्रयं प्रति मुंच शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेज:।।
यज्ञोपवीतमसि यज्ञस्त्वा यज्ञोपवीतेनोपनह्यामि।।
यज्ञोपवीत बदलने की आवश्यकता पड़ने पर निम्न मंत्र द्वारा पुराना यज्ञोपवीत उतार दें।
एतावत दिनर्यन्तं ब्रह्मत्वं धारितं मया।
जीर्णत्वातत्वत परित्यागो गच्छसूत्र यथा सुखम।।
इसके बाद यथाशक्ति गायत्री जाप करें।
नित्य कर्म के समय यज्ञोपवीत के स्थान हेतु पराशर स्मृति में निम्न वर्णन है-
मूत्रे तु दक्षिणे कर्णे, पुरीषे वाम कर्ण के । उपवीतं सदाघार्य, मैथूने तूपवीतकम।।
नया यज्ञोपवीत धारण करते समय दक्षिण भुजा के अंदर रखते हुए वाम कंधे पर धारन करने का विधान है। स्त्री संग के समय कंठ में, मूत्र त्यागते समय बांये कान पर व मल त्याग करते समय दक्षिण और वाम दोनों कर्णों पर धारण करें अर्थात लपेट लें।
यज्ञोपवीत देव, पितृ एवं ऋषि कार्यों के समय रखने के तीन प्रकार के विधान हैं-
सव्य: सव्य हमेशा रखते हैं। वाम कंधे पर देव कार्य करते समय सव्य ही रखना चाहिए।
अपसव्य: पितृ कार्य में दक्षिण कंधे पर करने को अपसव्य कहते हैं।
निविजी: ऋषि कार्य करते समय कंठ में धारण करने को निविजी कहते हैं
अत: उक्त तथ्यों से स्पष्ट हो जाता है कि यह सूत्र विधिविधान से तैयार कर धारण करने से चमत्कृत होता है और इसके धारण के बिना प्रत्येक धार्मिक कृत्य नहीं किया जा सकता अत: इसे धारण करना प्रत्येक ब्राह्मण का कर्त्तव्य एवं धर्म है।