सृष्टि क्रम में दाधीच (दायमा) ब्राह्मणों की उत्पत्ति दाधीच मात्र के लिए गर्वानुभूति का विषय है। श्री मन्नारायण भगवान द्वारा सर्वप्रथम नाभिकमल से ब्रह्मा को प्रकट किया गया। अथर्ववेद निर्माता अथर्व ब्रह्माजी के ज्येष्ठ पुत्र हुए। महर्षि दाधीच (दध्यड्) उन्हीं अथर्वा के पुत्र माने जाते हैं। दधीचि से पिप्पलाद मुनि उत्पन्न हुए जिनके 12 पुत्र गोत्र-प्रवर्तक ऋषि हुए। इन ऋषियों के 144 पुत्र हुए जो शाखाएं या नख कहलाए। वर्तमान में 88 शाखाएं समाज में विद्यमान हैं। महर्षि दाधीच ने देवताओं को असुरों से बचाने के लिए अपना जीवन त्याग कर ब्राह्मणत्व की मिसाल कायम की।
महर्षि दधीचि नैमिषारण्य (सीतापुर- उ.प्र.) के घने जंगलों के मध्य आश्रम बनाकर रहते थे। उन्हीं दिनों देवताओं एवं असुरों में लड़ाई छिड़ गई। देवता धर्म का राज्य स्थापित करना चाहते थे जबकि असुर अव्यवहारिक तथा पापाचारी प्रवृत्ति के कारण अधर्म का राज्य। असुर लोगों तथा देवताओं को सताते थे। देवताओं को बड़ी चिंता हो रही थी, वे असुरों के सामने हारने लगे।
अपनी हार को देखते हुए देवतागण राजा इंद्र के पास गये, इंद्र देवताओं की हताशा को देखते हुए उनकी जीत के लिए ब्रह्माजी से उपाय पूछकर सारा हाल बताया। ब्रह्माजी बोले हे-देवराज त्याग में इतनी शक्ति होती है कि उसके बल पर किसी भी असंभव कार्य को संभव किया जा सकता है तथा असुरों पर विजय पाने का एक ही उपाय है, यदि आप नैमिषारण्य वन में एक तपस्वी तप कर रहे हैं, उनका नाम दधीचि है, उन्होंने तपस्या और साधना के बल पर अपने अंदर अपार शक्ति जुटा ली है, यदि उनकी अस्थियों से बने अस्त्रों का प्रयोग आप लोग युद्ध में करें तो असुरों की पराजय निश्चित होगी। देवराज इंद्र ने कहा कि वे तो अभी जीवित हैं, उनकी अस्थियां हमें कैसे मिलेगी? तब ब्रह्माजी ने कहा कि इसका समाधान स्वयं दधीचि कर सकते हैं।
दूसरी ओर महर्षि दधीचि को चिंता थी कि असुरों के जीतने से अत्याचार व उन्नति का बोलबाला हो जाएगा, इसलिए देवताओं की विजय आवश्यक है। देवराज इंद्र दधीचि के आश्रम पहुंचे, महर्षि ध्यानावस्था में थे इंद्र हाथ जोड़कर याचक की मुद्रा में खड़े हो गए, ध्यानमग्न होने पर उन्होंने इंद्र को बैठने के लिए कहा और पूछा! कहिए देवराज इंद्र कैसे हाना हुआ? महात्मन आपको ज्ञात ही है कि असुरों ने देवताओं पर चढ़ाई कर दी है तथा अत्याचार करने लग गये हैं उनका सेनापति वृत्रासुर बहुत ही क्रूर तथा अत्याचारी है उनसे देवता हार रहे हैं, देवराज इंद्र ने कहा कि ब्रह्माजी से समाधान हेतु याचना की थी किंतु उन्होंने आपके पास ही इसके उपाय हेतु भेजा है किंतु.......? किंतु क्या? देवराज! आप रुक क्यों गए? साफ-साफ बताइए, अगर मेरे प्राणों की भी जरूरत होगी तो मैं तैयार हूं। विजय देवताओं की ही होनी चाहिए। तब देवराज इंद्र ने कहा कि हे महर्षि! ब्रह्माजी ने बताया कि आपकी अस्थियों से अस्त्र बनाया जाय तो वह बज्र के समान होगा तथा वृत्रासुर को मारने हेतु ऐसे ही बज्रास्त्र की आवश्यकता है। इंद्र की बात सुनकर महर्षि का चेहरा कान्तिमय हो उठा। उन्होंने कहा मैं धन्य हो गया जो मेरा शरीर भले कार्य में काम आएगा और उनका रोम रोम पुलकित हो गया।
प्रसन्नता पूर्वक महर्षि दधीचि बोले- ‘देवराज आपकी इच्छा अवश्य पूरी होगी। मेरे लिए इससे और गौरव की क्या बात होगी? आप निश्चय ही मेरी अस्थियों से बज्र बनवायें और असुरों का विनाश कर चारों ओर शांति स्थापित करें। महर्षि दधीचि ने योग बल से अपने नेत्र बंद कर लिए और अपने प्राणों को शरीर से अलग कर लिया तथा उनका शरीर निर्जीव हो गया। देवराज ने आदरपूर्वक दधीचि के मृत शरीर को प्रणाम किया और अपने साथ लेकर आ गए। महर्षि दधीचि के शरीर से बज्र बनाया तथा उसके प्रहार द्वारा वृत्रासुर का वध किया गया परिणाम स्वरूप असुरों की बुरी तरह हार हुई एवं देवताओं की विजय। महर्षि दधीचि के त्याग ने जो श्रद्धा स्थापति की उसकी याद में नैमिषारण्य में प्रतिवर्ष फाल्गुन माह में उनकी स्मृति में भव्य मेले का आयोजन होता है। ऐसे महान महर्षि दधीचि से दायमा ब्राह्मण समाज की उत्पत्ति हुई है।
दायमा समाज की कोलकाता में निम्न संस्था है-
श्री दाधीच परिषद- 19ए, मुक्ताराम बाबू स्ट्रीट, 2 तल्ला, कोलकाता- 700007